मनुष्य जो ठान लेता है उसे प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक संकल्प का आरंभ ‘इच्छा’ से होता है जो मन में उठ रही कामना है। बचपन से हम अपनी इच्छाओं, स्वप्न, महत्वकांक्षाओं की अभिव्यक्ति धड़ल्ले से ‘मन करता है’ वाक्यांश से शुरू करते हैं। यानी मन हमारे समस्त विचारों, कामनाओं का कार्यक्षेत्र है और हमेशा उसमें गृहयुद्ध की स्थिति बनी होती है। मन को निश्चित तौर पर नहीं पता है, उसे चाहिए क्या? जिस मन की शांति की हमें ताउम्र तलाश होती है और जो हमें तमाम तरह से योग, ध्यान, मंत्र जाप के बाद मिलता है, उसकी अवधि इतनी क्षणिक क्यों होती है?
एक अंदेशा है कि व्यक्ति की कामनाएं पूर्ण हो जाएं तो उसका मन उसके नियंत्रण में आ जाएगा और उसमें चल रहे कोहराम पर विराम लग जाएगा। इसी उद्देश्य से हम सब तीर्थ स्थानों की यात्रा पर जाते हैं और वहां जाकर अपनी कामनाओं की अर्जी लगाते हैं। धर्म और पुण्य के कार्य करते हैं क्योंकि कामना से हम अंततोगत्वा मन की शांति खोज रहे होते हैं। सोचने का प्रश्न यह है कि क्या कामनाओं की पूर्ति के लिए की गई प्रार्थना में मनुष्य के स्वार्थ की झलक प्रतिबिंबित होती है या फिर कामनाओं की पूर्णता से मनुष्य जीवन पूर्णता को प्राप्त करता है? हमारे ॠषि-मुनियों ने कामनापरक जीवन के सत्य को स्वीकार किया है। वेदों और पुराणों में उद्धृत मंत्रों एवं स्तुतियों, देवी-देवता से धन-धान्य, पुत्र, आयु, आरोग्य एवं यश मांगने की परंपरा है। देवी-देवताओं के चित्रण में वरद-मुद्रा प्रमुखता से दिखाई देती है, यानी भक्त कामनाओं की सूची देवता को दे रहे हैं और देवता उन कामनाओं पर तथास्तु कह रहे हैं। देवता कहते भी उन्हें हैं, जो देते हैं।
कामनाएं मनुष्य के जीवन का आधार हैं। व्यापक नजरिए से देखें तो प्रार्थनाओं एवं मंत्रों में कामनाओं की पुनरावृत्ति मन की ऊर्जा को दिशा देने के समान है। यह तो सब मानते हैं कि ईश्वर का निवास मन में है। प्रार्थनाएं, मंत्र पाठ एवं स्तुतियां ईश्वर के समीप जाने का माध्यम है। कामनाएं मन में उठने वाली वे विचार तरंगें हैं, जो भौतिकी के सिद्धांत की तरह सुसुप्त ऊर्जा को गतिशील ऊर्जा में बदलती हैं। जैसे चाबी वाले खिलौने को जब पूरी तरह कस दिया जाता है तब खिलौना लंबे समय तक क्रियाशील रहता है। प्रार्थनाओं के माध्यम से मन की चाबी कसी जा रही है।