हरिहर वैष्णव
इसे बस्तर का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि इसे जाने-समझे बिना इसकी संस्कृति, विशेषत: इसकी आदिवासी संस्कृति, के विषय में जिसके मन में जो आये कह दिया जाता रहा है। गोंड जनजाति, विशेषत: इस जनजाति की मुरिया शाखा, में प्रचलित रहे आये “घोटुल” संस्था के विषय में मानव विज्ञानी वेरियर एल्विन से ले कर आज तक विभिन्न लोगों ने अपने अल्पज्ञान अथवा कहें कि अज्ञान के चलते अनाप-शनाप कह डाला है। और यह अनाप-शनाप इसीलिये कहा जाता रहा है क्योंकि आदिवासी संस्कृति के तथाकथित जानकारों ने इस संस्था के मर्म को जाना ही नहीं। न तो वे इसके इतिहास से भिज्ञ रहे हैं और न ही इसकी कार्य-प्रणाली से।
अधिकांश ऐसे लोग हैं जिन्होंने वेरियर एल्विन और ग्रियर्सन के लिखे को ही अन्तिम सत्य मान लिया और उन्हीं की दुहाई दे-दे कर घोटुल जैसी पवित्र संस्था पर कीचड़ उछालने में लगे रहे। उन्होंने इसकी सत्यता जानने का कोई प्रयास ही नहीं किया। करते तो जान पाते कि घोटुल वह नहीं जो वे अब तक समझते रहे हैं। घोटुल तो गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय है। समाज-शिक्षा का मन्दिर है। लिंगो पेन यानी लिंगो देवता की आराधना का पवित्र स्थल है। “लिंगो” पेन घोटुल के संस्थापक और नियामक रहे हैं। गोंड समाज के प्रमुखों के अनुसार लिंगो देव को ही हल्बी परिवेश में बूढ़ा देव तथा छत्तीसगढ़ी परिवेश में बड़ा देव सम्बोधित किया जाता है। और ये बूढ़ा देव, बड़ा देव या लिंगो पेन भगवान शिव (नटराज) के ही अवतार या अंश माने जाते हैं। किन्तु गोंड जनजाति से ही सम्बद्ध जयमती कश्यप (ग्राम : नेलवाड़, जिला : नारायणपुर। सम्प्रति : पर्यवेक्षक, महिला एवं बाल विकास विभाग, कोंडागाँव) के अनुसार लिंगो पेन को इन्द्र का रूप माना जाता है, जिनके दरबार में अप्सराएँ सामूहिक नृत्य प्रस्तुत करती रहती हैं।
इसी तरह पुरुष नर्तकों-गायकों को गन्धर्व का रूप माना जाता है। वे आगे कहती हैं कि लिंगो पेन यानी इन्द्र स्वयं नृत्य नहीं करते बल्कि गन्धर्व एवं अप्सरायें यानी चेलिक और मोटियारिनें “लिंगो खुटा” बीच में गाड़ कर उसके चारों ओर घूम-घूम कर नृत्य करती हैं। वहीं कुछ लोगों के अनुसार लिंगो पेन को श्रीकृष्ण का भी रूप माना गया है जो गोप-गोपियों के साथ नृत्य-संगीत में तल्लीन रहते हैं। दरअसल लिंगो के विषय में मतैक्य नहीं दिखता। गोंड समुदाय के ही भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न धारणाएँ रखते हैं।
गोंड समुदाय से सम्बद्ध पालकी (नारायणपुर) निवासी रमेश चन्द्र दुग्गा (सम्प्रति : सहायक वन संरक्षक, वन विभाग, छत्तीसगढ़) कहते हैं, “”हमारे समाज में यह विश्वास है कि घोटुल की परम्परा का सूत्रपात तथा सभी वाद्य-यन्त्रों की रचना भी लिंगो के द्वारा ही की गयी है। सारे नियम व रीति-रिवाज लिंगो द्वारा ही बनाये गये हैं। आज भी घोटुल की परम्परा तथा नियम व रीति-रिवाजों का पालन किया जा रहा है। घोटुल को गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय कहा जाना चाहिये। इन्हें आगे चल कर लिंगो पेन यानी लिंगो देवता के रूप में जाना और माना गया। बेठिया प्रथा का बस्तर में चलन में है। इस प्रथा के अन्तर्गत गाँव के लोग जरुरतमंद व्यक्ति के घर का बड़ा-से-बड़ा कार्य बिना किसी मेहनताना के करते हैं। सहकार की भावना है इसके पीछे। घोटुल में यही भावना निहित होती है।””
गढ़बेंगाल (नारायणपुर) निवासी सुप्रसिद्ध काष्ठ शिल्पी पण्डीराम मण्डावी कहते हैं, “”घोटुल में हम लोग आपसी भाई-चारे की शिक्षा ग्रहण करते हैं। हम तो आदिवासी हैं। बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानते किन्तु हमें हमारी अपनी परम्पराओं से लगाव है। हो सकता है कि हमारी परम्पराएँ दूसरों को ठीक न लगती हों। मैं तथाकथित ऊँचे लोगों की तुलना में अपने समाज को अच्छा समझता हूँ। कारण, हमारे समाज में बलात्कार नहीं होता। दूसरी बात, घोटुल से हमारे समाज को जो फायदा होता है वह यह कि जब कभी किसी प्रकार का कोई काम होता है, घोटुल के सारे सदस्य मिल-जुल कर उसे पूरा करते हैं। चाहे वह सुख हो या दु:ख की घड़ी। मसलन, आज हमारे लड़के का विवाह करना है तब हम घोटुल के सदस्यों को कुछ भेंट दे कर उन्हें बताते हैं कि आठ-दस या पन्द्रह दिनों बाद मेरे घर में विवाह है। यह सूचना पा कर घोटुल की सारी लड़कियाँ पत्ते तोड़ेंगी, लड़के लकड़ी लायेंगे, नाचेंगे, गायेंगे, खाना-वाना सब बनायेंगे।
इसी तरह, यदि किसी के घर में किसी की मृत्यु हो गयी या विपत्ति आ गयी तो भी घोटुल के सदस्य हमारे काम आते हैं। एक गाँव से दूसरे गाँव तक सूचना भेजने का साधन हमारे पास नहीं है। हमारे पास तो फोन नहीं है। हमारे कुटुम्बी दूर-दराज के गाँवों में रहते हैं। तब ऐसे समय में घोटुल के सब लड़के सायकिल ले कर या पैदल खबर देने जाते हैं। यह भी अच्छा लगता है। तो मेरे हिसाब से तो घोटुल का बना रहना समाज के हित में है। कारण, यहाँ सहकार की भावना काम करती है।””
नयी पीढ़ी द्वारा घोटुल प्रथा पर उठायी जा रही आपत्ति के विषय में पण्डीराम कहते हैं, “”कई लोग घोटुल प्रथा पर आपत्ति कर रहे हैं। नयी पीढ़ी के लोग कह रहे हैं कि घोटुल प्रथा से हमें लज्जा आने लगी है। इसीलिये इसे बन्द कर दिया जाना चाहिये। किन्तु मेरा कहना है कि इसमें शर्म किस बात की? बड़े-बड़े शहरों में कितनी नंगाई होती है। उन्हें कोई नहीं देखता। रात में नाचते हैं, गाते हैं। हमारा आदिवासी भाई एक पौधे के आड़ में जा कर मूत्र विसर्जन करता है किन्तु शहर में तो लोग कहीं भी मूत्र विसर्जन कर देते हैं। वहाँ लोगों की भीड़ रहती है किसी मेले की तरह। किन्तु वहाँ लोगों को एक-दूसरे का ख्याल नहीं होता।””
क्या है यह घोटुल?
बस्तर की गोंड जनजाति की एक शाखा मुरिया के बीच प्रचलित घोटुल युवा वर्ग के लिये गृहस्थ और सामाजिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला से ले कर विश्वविद्यालय तक की भूमिका निभाता है। गाँव के दूसरे छोर पर, और किसी-किसी गाँव में गाँव के बीचों-बीच किन्तु आबादी से अलग-थलग बने इस युवा-गृह में चेलिक और मोटियारिनों का प्रवेश नितान्त आवश्यक होता रहा है। चेलिक का अर्थ है अविवाहित युवक और मोटियारिन का अर्थ है अविवाहित युवती। इनके अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति को इस युवा-गृह में प्रवेश की पात्रता नहीं होती।
यहाँ ये युवक-युवती देर रात तक जागते हुए नृत्य-गीत एवं कथा-कहानी सुनने-सुनाने में लीन रहते हैं। आपसी सौहाद्र्र, भाई-चारा, आपसी सहयोग आदि की शिक्षा इन्हें इसी युवा-गृह से मिलती है। इस संस्था में युवक-युवतियों को सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की शिक्षा दी जाती है और कर्मकाण्ड से परिचित कराया जाता है। यहाँ का प्रशासन-तन्त्र बहुत ही चुस्त-दुरुस्त होता है। संविधान अलिखित किन्तु कठोर! अनुशासन में बँधे रहना इस संस्था की अनिवार्यता है। इसके सदस्यों के मूल नाम यहाँ परिवर्तित हो जाते हैं। छद्म नामों से एक-दूसरे को जाना जाता है किन्तु घोटुल के बाहर का कोई भी व्यक्ति प्राय: इनके छद्म नामों से परिचित नहीं होता। ये छद्म नाम होते हैं बेलोसा, दुलोसा आदि।
क्या होता है घोटुल में?
घोटुल को आरम्भ से ही एक प्रभावी और सर्वमान्य सामाजिक संस्था के रूप में मान्यता मिलती रही है। इसे एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता रहा है, जिसकी भूमिका गोंड जनजाति की मुरिया शाखा को संगठित करने में प्रभावी और प्रमुख रही है। यों तो मोटे तौर पर घोटुल मनोरंजन का केन्द्र रहा है, जिसमें प्रत्येक रात्रि नृत्य, गीत-गायन, कथा-वाचन एवं विभिन्न तरह के खेल खेले जाते हैं। किन्तु मनोरंजन प्रमुख नहीं अपितु गौण होता है और प्रमुखत: यह संस्था सामाजिक सरोकारों से पूरी तरह जुड़ी होती है। वे सामाजिक सरोकार क्या हैं, इन्हें निम्नानुसार देखा जा सकता है :
संगठन की भावना को बल दिया जाता है
गाँव के किसी भी किस्म के सामाजिक कार्य (विवाह, मृत्यु, निर्माण-कार्य आदि) में श्रमदान किया जाता है
युवक-युवतियों को सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की शिक्षा दी जाती है
भावी वर-वधू को विवाह-पूर्व सीख दी जाती है
हस्त-कलाओं का ज्ञान कराया जाता है
गाँव में आयी किसी विपत्ति का सामना एकजुट हो कर किया जाता है
वाचिक परम्परा का नित्य प्रसार किया जाता है
अनुशासित जीवन जीने की सीख दी जाती है, आदि आदि।
क्या होते हैं घोटुल के नियम?
घोटुल के नियम अलिखित किन्तु बहुत ही कठोर और सर्वमान्य होते हैं। विवाहितों को घोटुल के आन्तरिक क्रिया-कलाप में भागीदारी की अनुमति, विशेष अवसरों को छोड़ कर, प्राय: नहीं होती। इन नियमों को संक्षेप में इस तरह देखा जा सकता है :
प्रत्येक चेलिक को प्रति दिन लकड़ी लाना आवश्यक है
मोटियारिन के लिये पनेया (एक तरह का कंघा) बना कर देना आवश्यक है
अपने वरिष्ठों का सम्मान करना तथा कनिष्ठों के प्रति सदय होना आवश्यक है
संस्था के पदाधिकारियों द्वारा दिये गये कार्य को सम्पन्न करना आवश्यक है
मोटियारिनों के लिये आवश्यक है कि वे घोटुल के भीतर तथा बाहर साफ-सफाई रखें
गाँव के किसी भी काम में घोटुल की सहमति से सहायक होना आवश्यक है
घोटुल तथा गाँव में शान्ति बनाये रखने में सहयोगी होना आवश्यक है, आदि आदि।
नियमों के उल्लंघन पर दण्ड का प्रावधान?
घोटुल के नियमों का उल्लंघन होने पर दोषी को दण्ड का भागी होना पड़ता है। घोटुल के नियमों का पालन नहीं करने वाले को उसकी त्रुटि के अनुरूप लघु या दीर्घ शास्तियाँ दिये जाने का प्रावधान होता है। दी जाने वाली छोटी और बड़ी सजा के कुछ उदाहरण ये हैं :
छोटी सजा : घोटुल के तयशुदा कत्र्तव्यों का पालन नहीं करना दोषी को प्राय: छोटी सजा का हकदार बनाता है। उदाहरण के तौर पर, लकड़ी ले कर न आना। सभी सदस्य युवकों के लिये आवश्यक होता है कि वे घोटुल में प्रति दिन कम से कम एक जलाऊ लकड़ी ले कर आयें। यदि कोई सदस्य इसमें चूक कर जाता है तब उसे छोटी सजा दी जाती है। छोटी सजा के कुछ उदाहरण ये हैं :
आर्थिक दण्ड : छोटी सजा के रूप में प्राय: पाँच से दस रुपये तक के आर्थिक दण्ड से दण्डित किये जाने का प्रावधान किया जाता है। किन्तु यदि दोषी चेलिक आर्थिक दण्ड भुगतने की स्थिति में न हो तो उसे शारीरिक दण्ड भोगना पड़ता है। किन्तु चूक यदि कुछ अधिक ही हो गयी हो तो उसे आर्थिक और शारीरिक दोनों ही तरह के दण्ड भुगतने पड़ सकते हैं।
शारीरिक दण्ड : शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत बेंट सजा दिये जाने का प्रावधान होता है। बेंट सजा के अन्तर्गत दोषी चेलिक को उकड़ूँ बिठा कर उसके दोनों घुटनों और कोहनियों के बीच रुलरनुमा एक मोटी सी गोल लकड़ी डाल दी जाती है। इसके बाद उस पर कपड़े को ऐंठ कर बनायी गयी बेंट से उसकी देह पर प्रहार किया जाता है। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रकार के शारीरिक दण्डों का भी प्रावधान होता है। मोटियारिनों के लिये अलग किस्म के दण्ड का प्रावधान होता है। उदाहरण के लिये यदि किसी मोटियारिन ने साफ-सफाई के काम में अपनी साथिन का सही ढंग से साथ नहीं दिया तो उसे साफ-सफाई का काम अकेले ही निपटाना पड़ता है।
प्रतिबन्धात्मक दण्ड : त्रुटियों की पुनरावृत्ति अथवा पदाधिकारियों के आदेश की अवहेलना अथवा लापरवाही की परिणति प्रतिबन्धात्मक शास्ति के रूप में होती है। इस दण्ड के अन्तर्गत दोषी पर कुछ दिनों के लिये घोटुल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है।
बड़ी सजा : बड़ी चूक हो तो दोषी को घोटुल से निष्कासित कर उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। ऐसे चेलिक/मोटियारी के घर-परिवार में होने वाले किसी भी कार्य में घोटुल के सदस्य सहयोग नहीं करते।
इस तरह के कठोर नियमों के कारण घोटुल के नियमों की अनदेखी करने की हिम्मत प्राय: कोई नहीं करता। हँसी-ठिठोली उसी तरह के रिश्ते में आने वाले लड़के और लड़की के बीच ही सम्भव है, जिनके बीच हँसी-ठिठोली को सामाजिक मान्यता मिली हुई है।