गोविंदा मिश्रा
बिहार की धरती हमेशा से सामाजिक बदलाव की गवाह रही है। कभी यहाँ किसान आंदोलनों ने राजनीति की दिशा तय की, तो कभी छात्र आंदोलन ने सत्ता के समीकरण बदल दिए। लेकिन इस बार जो परिवर्तन दिख रहा है, वह औरों से अलग है। अबकी बार चर्चा जात-पात या समुदाय की नहीं, बल्कि महिलाओं की भूमिका और उनकी ताक़त की हो रही है। गाँव-गाँव और मोहल्लों में यही सवाल उठ रहा है कि महिलाएँ इस बार किसे अपना समर्थन देंगी, क्योंकि बिहार की राजनीति का भविष्य अब बड़ी हद तक उन्हीं के हाथों में है।
कभी यह कहा जाता था कि औरतें घर की चौखट तक ही सीमित रहती हैं। पर आज तस्वीर बिल्कुल बदल गई है। घर की देहरी पार करके महिलाएँ पंचायत से लेकर कारोबार और समाज सेवा तक में अपनी पहचान बना रही हैं। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना ने इसमें अहम भूमिका निभाई। दस हज़ार की शुरुआती सहायता और फिर ज़रूरत पर दो लाख तक की मदद ने हज़ारों महिलाओं की ज़िंदगी का रास्ता बदल दिया। आँकड़े बताते हैं कि अब तक लाखों महिलाएँ इस योजना से सीधे लाभान्वित हो चुकी हैं और उनके खाते में हज़ारों करोड़ रुपये पहुँच चुके हैं।
इस बदलाव की कई कहानियाँ गाँव-गाँव में सुनाई देती हैं। कहीं “लखपति दीदी” सबको प्रेरित कर रही हैं, तो कहीं “ड्रोन दीदी” तकनीक से खेती को नया रूप दे रही हैं। कटिहार की सीमा देवी, जो पहले बकरी पालन से परिवार का खर्च चलाती थीं, अब छोटी डेयरी चला रही हैं और गाँव की औरतों को भी रोज़गार दे रही हैं। गया की अर्चना देवी सिलाई-कढ़ाई से इतना कमा लेती हैं कि अपने बेटे को पटना में पढ़ा रही हैं। गाँव के लोग गर्व से कहते हैं—“औरतें अब सिर्फ चूल्हा-चौका नहीं, पूरे परिवार की तकदीर बदल रही हैं।”
महिला आरक्षण ने भी महिलाओं का हौसला बढ़ाया है। पंचायतों से लेकर सरकारी नौकरियों और राजनीति तक में अब उनकी भागीदारी दिखने लगी है। यह केवल कागज़ पर बदलाव नहीं है, बल्कि ज़मीनी हक़ीक़त है। चौपालों में अब सिर्फ पुरुषों की नहीं, महिलाओं की भी आवाज़ गूँजती है।
डबल इंजन सरकार ने महिलाओं की ज़िंदगी आसान बनाने के लिए कई योजनाएँ शुरू कीं। उज्ज्वला योजना से रसोई में धुएँ का बोझ घटा, आवास योजना से पक्के घर मिले, तो हर घर नल-जल योजना ने साफ़ पानी की चिंता दूर की। इन बदलावों से महिलाओं की सेहत सुधरी और उन्हें रोज़मर्रा के कामों से राहत मिली।
गाँव की महिलाओं को सबसे ज़्यादा राहत मुफ्त बिजली और पेंशन की बढ़ोतरी से मिली। पहले जो महिलाएँ रोज़-रोज़ सोचती थीं कि बिजली का बिल कैसे भरेँगी, वे अब राहत की साँस ले रही हैं। पेंशन से बुज़ुर्ग महिलाएँ बेटियों और पोतियों की पढ़ाई में मदद कर रही हैं।
बिहार में बेटियों की शिक्षा भी राजनीति का अहम मुद्दा बन गई है। साइकिल योजना ने गाँव की गलियों में लड़कियों को नई उड़ान दी। पहले जो लड़कियाँ बीच में पढ़ाई छोड़ देती थीं, वे अब आत्मविश्वास से स्कूल-कॉलेज जा रही हैं। समस्तीपुर की राधा, जो पहले साइकिल से स्कूल जाती थी, आज स्नातक की पढ़ाई पूरी कर शिक्षक बनने का सपना देख रही है।
महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से परिवारों में भी सकारात्मक बदलाव आया है। माँ और बहनें अब बच्चों की पढ़ाई और पोषण पर ज़्यादा ध्यान दे रही हैं। गाँव-गाँव में ‘महिला मंडल’ और ‘जीविका समूह’ नई पहचान बन चुके हैं। इन समूहों से जुड़कर महिलाएँ दूध, सब्ज़ी, हस्तशिल्प और छोटे उद्योग चला रही हैं।
यह केवल आर्थिक पहलू नहीं है, सांस्कृतिक धरातल पर भी बदलाव हो रहा है। मिथिला के पुनौराधाम स्थित सीता मंदिर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलने से बिहार की आस्था और गर्व को नया आधार मिला है। महिलाएँ इसे अपनी शक्ति से जोड़कर देख रही हैं। इसी तरह, दरभंगा की मधुबनी पेंटिंग बनाने वाली महिलाओं की मेहनत अब केवल दीवारों तक नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों तक पहुँच रही है।
यह बदलाव बताता है कि बिहार की राजनीति अब जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर विकास और महिला सशक्तिकरण पर केंद्रित हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का महिलाओं से सीधा संवाद इस प्रक्रिया को और गहरा बना देता है। जब वे मंच से कह देते हैं कि “महिला शक्ति ही भारत की असली ताक़त है,” तो महिलाएँ इसे अपने जीवन का सम्मान मानती हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाला चुनाव केवल मंडल या कमंडल की लड़ाई नहीं होगी। असली मुद्दा यह होगा कि महिलाएँ किसे अपने विश्वास और सपनों का साथी मानती हैं। अबकी बार “महिला शक्ति” ही चुनावी नतीजों की सबसे बड़ी निर्णायक होगी।
बिहार में यह परिवर्तन केवल राजनीतिक समीकरण नहीं बदल रहा है, बल्कि समाज की सोच भी बदल रहा है। पहले लोग कहते थे—“औरत घर की इज़्ज़त है।” अब कहते हैं—“औरत समाज की ताक़त है।”
आज गाँव की चौपाल पर यही चर्चा होती है कि महिला शक्ति के दम पर बिहार की तस्वीर बदल रही है। औरतें अब सिर्फ घर सँभालने वाली नहीं रहीं, बल्कि बिहार की राजनीति और समाज को नई दिशा देने वाली ताक़त बन चुकी हैं। यही बदलाव है, जो आने वाले समय में बिहार की राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल देगा।
(लेखक पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
