गोविंदा मिश्रा,
संपादक, केबी न्यूज
चिली की पूर्व राष्ट्रपति और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) की मुखिया रह चुकी मिशेल बैशलेट को हाल ही में इंदिरा गांधी शांति, निरस्त्रीकरण और विकास पुरस्कार देने की घोषणा की गई। यह सम्मान भारत में लंबे समय से प्रतिष्ठित माना गया है, किन्तु इस बार इसे लेकर राजनीतिक हलकों में एक व्यापक बहस छिड़ गई है। सवाल यह है कि यह पुरस्कार वास्तव में शांति और विकास के मानकों पर दिया गया है, या फिर यह किसी खास राजनीतिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने का प्रयास है?
बैशलेट का रिकॉर्ड, उनके बयान, भारत के प्रति उनकी पुरानी टिप्पणियाँ और कांग्रेस द्वारा उन्हें दिए गए इस सम्मान का समय—सभी मिलकर यह संकेत देते हैं कि मामला महज़ एक सम्मान भर का नहीं, बल्कि गहन राजनीतिक संदेश का हिस्सा है।
भारत पर लगातार नकारात्मक टिप्पणियाँ — क्या यही ‘शांति’ का आधार?
मिशेल बैशलेट जब UNHRC की मुखिया थीं, तब उन्होंने भारत को लेकर अनेक टिप्पणियाँ की थीं। इन टिप्पणियों में अक्सर वही दृष्टिकोण झलकता था, जो भारत के भीतर कुछ राजनीतिक समूहों द्वारा बार-बार उठाया जाता है—विशेषकर कांग्रेस और उससे जुड़े उदारवादी- वामपंथी समूहों द्वारा।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर जब कोई नेता किसी देश के आंतरिक मामलों पर राय देता है, तो सामान्यतः यह संयमित और संतुलित होता है। किंतु बैशलेट की आलोचनाएँ अक्सर एकतरफा, आधी जानकारी पर आधारित और भारत की नीतियों के प्रति स्पष्ट पूर्वाग्रह से भरी दिखी हैं। यह सिर्फ घटनाओं की प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि एक विशिष्ट वैचारिक दृष्टिकोण का प्रतिफल था।
चिली में आर्थिक नीतियाँ विफल, फिर भी कांग्रेस का विश्वास
चिली में मिशेल बैशलेट की पहचान एक ऐसी नेता के रूप में बनी, जिनकी आर्थिक नीतियाँ अस्थिरता पैदा करने वाली रहीं। उनके कार्यकाल में आर्थिक ढांचा कमजोर होता चला गया और देश में दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों को मजबूती मिलने लगी।
इन आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस पार्टी द्वारा उन्हें सर्वोच्च भारतीय पुरस्कारों में से एक से सम्मानित करना कई सवालों को जन्म देता है। क्या यह सम्मान सचमुच उनके विकास कार्यों की मान्यता है, या फिर भारत-विरोधी बयानों के कारण उनके प्रति उत्पन्न राजनीतिक सहानुभूति?
कांग्रेस की पसंद और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि
बीते वर्षों में भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने भारत की वैश्विक छवि को मज़बूत करने, देश की साख बढ़ाने और आत्मविश्वासपूर्ण राष्ट्र की छवि गढ़ने का प्रयास किया है। इस बीच कांग्रेस ने उन अंतरराष्ट्रीय आवाज़ों को प्राथमिकता दी है जो भारत की नीतियों की आलोचना करती हैं।
मिशेल बैशलेट ऐसी ही एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती रही हैं, जिनके बयान कांग्रेस के राजनीतिक नैरेटिव के लिए अक्सर उपयोगी रहे। यही कारण है कि उनके सम्मान को शांति या विकास की कसौटी की बजाय राजनीतिक सुविधा के रूप में देखा जा रहा है।
अनुच्छेद 370 पर मचा विवाद — बैशलेट की ‘आलोचना’ और कांग्रेस की रणनीति
जब भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर समान अधिकारों के नए युग का द्वार खोला, तब यह निर्णय विश्वभर में भारत के लोकतांत्रिक संकल्प का उदाहरण माना गया।
कश्मीर अब एकीकृत ढांचे में विकसित हो रहा है, निवेश बढ़ रहा है और हिंसा में भारी कमी आई है—लेकिन इन तथ्यों को बैशलेट ने कभी अपने बयान में स्वीकार नहीं किया।
इसके विपरीत, उन्होंने भारत की आलोचना की और कांग्रेस ने तुरंत इन आलोचनाओं को आधार बनाकर यह प्रचार करने की कोशिश की कि भारत ने लोकतंत्र को नुकसान पहुँचाया है।
यहाँ सवाल यह उठता है—क्या UNHRC प्रमुख का काम तथ्यों पर आधारित टिप्पणी करना होता है, या किसी पक्षविशेष के राजनीतिक एजेंडे को बल देना?
दिल्ली दंगों पर राजनीतिक दृष्टिकोण
दिल्ली दंगों के समय भी बैशलेट के बयान में संतुलन नज़र नहीं आया। उन्होंने भारत को असहिष्णु बताकर दुनिया के सामने एकतरफा दृष्टिकोण रखा।
जबकि तथ्य यह है कि दंगों के पीछे झूठी खबरों, अफवाहों और राजनीतिक ध्रुवीकरण की बड़ी भूमिका थी।
कांग्रेस ने उनके बयान को हथियार की तरह इस्तेमाल किया ताकि केंद्र सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जा सके।
CAA पर सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप — भारत की संप्रभुता पर प्रश्न
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) भारत का एक आंतरिक निर्णय था, जिसका उद्देश्य पड़ोसी देशों के सताए हुए अल्पसंख्यकों को संरक्षण देना था।
लेकिन बैशलेट ने इस पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी—यह पहला अवसर था जब किसी UN अधिकारी ने भारतीय न्यायपालिका के आंतरिक मामले में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया।
कांग्रेस ने इस हस्तक्षेप का विरोध नहीं किया, बल्कि इसे अपनी राजनीतिक रणनीति के अनुरूप बताया। यह प्रश्न आज भी बना हुआ है—क्या किसी विदेशी अधिकारी को भारतीय कानून के आंतरिक विवाद में हस्तक्षेप का अधिकार है?
एनजीओ और एक्टिविस्ट: बैशलेट का अधूरा विश्लेषण
भारत में कुछ विदेशी वित्तपोषित एनजीओ लंबे समय से अवैध फंडिंग, राष्ट्रविरोधी गतिविधियों और जनमत भ्रामक बनाने के आरोपों में जांच के दायरे में रहे हैं।
लेकिन बैशलेट ने इस पहलू पर कभी ध्यान नहीं दिया।
उनके बयान हमेशा यह संकेत देते रहे कि भारत में नागरिक स्वतंत्रता खतरे में है, जबकि यह पूरी तरह तथ्यहीन धारणा है।
कांग्रेस के लिए यह बयान इसलिए उपयोगी रहा क्योंकि वह इससे भारतीय संस्थाओं पर उंगली उठा सकी और जनता में भ्रम पैदा कर सकी।
किसान आंदोलन—एक और अधूरा आकलन
किसान आंदोलन के दौरान बैशलेट ने भारत में लगाए गए “राजद्रोह के मामलों” पर चिंता जताई।
उन्होंने यह नहीं बताया कि आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया पर कितनी भ्रामक खबरें फैलाई गईं, कैसे गलत जानकारियाँ देश में तनाव बढ़ा रही थीं।
कांग्रेस ने इस एकतरफा बयान का उपयोग केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए किया, बिना यह सोचे कि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि प्रभावित होती है।
“नागरिक जगह सिकुड़ रही है” — क्या भारत के बारे में यह सच है?
भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि सबसे जीवंत लोकतांत्रिक समाज भी है।
यहाँ मीडिया, विपक्ष, न्यायपालिका, सोशल मीडिया, एक्टिविस्ट—हर किसी को अपनी बात खुलकर कहने की स्वतंत्रता है।
इसके बावजूद बैशलेट ने कहा कि भारत में “नागरिक जगह सिकुड़ रही है।”
यह बयान जमीनी हकीकत के बिल्कुल विपरीत है, फिर भी कांग्रेस ने इसे हाथोंहाथ लिया क्योंकि यह उनकी राजनीतिक लाइन के अनुकूल था।
अल्पसंख्यक अधिकार — पुराना नैरेटिव, पुराने आरोप
भारत में अल्पसंख्यक समुदायों को संविधान ने विशेष दर्जा और अनेक अधिकार दिए हैं।
उनके कल्याण के लिए योजनाएँ चल रही हैं, शिक्षा और रोजगार में अवसर बढ़ रहे हैं।
लेकिन बैशलेट ने बार-बार यह दावा किया कि भारत मुस्लिमों को डराने वाला देश बन रहा है—यह बयान एक राजनीतिक नैरेटिव से अधिक कुछ नहीं था।
कांग्रेस के लिए यह बयान उपयोगी था क्योंकि वह इसे केंद्र सरकार की आलोचना के लिए इस्तेमाल कर सकती थी।
मानवाधिकारों को राजनीतिक हथियार बनाना
बैशलेट ने अपनी पूरी अवधि में “चिंता”, “आशंका”, “शंका” जैसे शब्दों को बार-बार दोहराकर भारत की छवि को चोट पहुँचाने का काम किया।
मानवाधिकारों का मुद्दा संवेदनशील और अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका उपयोग किसी देश के राजनीतिक माहौल को प्रभावित करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
कांग्रेस ने इन बयानों को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया, जबकि वास्तविकता इससे काफी अलग थी।
वामपंथी सोच और राष्ट्रवादी सरकारों से असहजता
बैशलेट की वैचारिक पृष्ठभूमि स्पष्ट रूप से वामपंथी है।
मज़बूत राष्ट्रवादी सरकारों, सख्त सुरक्षा नीति और समाज में पारंपरिक मूल्यों को महत्व देने वाले राष्ट्रों से वे अक्सर असहज दिखाई देती हैं।
कांग्रेस, जो पिछले कई वर्षों से जनता के बीच अपनी पकड़ खो रही है, उनके इस रुख में अपना दर्द और अपनी राजनीतिक लड़ाई का प्रतिबिंब देखती है।
क्या शांति पुरस्कार का असल उद्देश्य कुछ और है?
इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार देने का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह व्यक्ति वास्तव में शांति, निर्भय सहअस्तित्व और विकास के लिए कार्यरत हो।
लेकिन क्या मिशेल बैशलेट इस कसौटी पर खरी उतरती हैं?
जो नेता बार-बार भारत की छवि खराब करने का प्रयास करे, आंतरिक नीतियों पर विदेशों में सवाल खड़े करे, और आधी-अधूरी जानकारी पर आधारित आलोचनाएँ करे—उसे सम्मान देना कहीं न कहीं भारत की नीतियों और जनता के जनमत के विपरीत जाता है।
सवाल बड़ा है — जवाब और भी साफ
आज देश की जनता यह बात साफ तौर पर देख रही है कि—
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भाजपा भारत को दुनिया में एक मजबूत, आत्मविश्वासी और सक्षम राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत कर रही है।
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कांग्रेस उन आवाज़ों पर भरोसा कर रही है जो भारत की आलोचना करती हैं, ताकि वे इन आलोचनाओं को अपनी राजनीति के लिए उपयोग कर सकें।
इसका सबसे ताज़ा उदाहरण मिशेल बैशलेट को इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने का निर्णय है।
कांग्रेस को इस बात की चिंता नहीं कि किसी विदेशी नेता की टिप्पणी भारत की संप्रभुता, सुरक्षा या वैश्विक साख को कैसे प्रभावित करती है।
उन्हें सिर्फ यह दिखता है कि यह बयान मोदी सरकार के विरुद्ध इस्तेमाल किया जा सकता है।
इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार एक अत्यंत प्रतिष्ठित सम्मान है। यह भारत की उदार विचारधारा और वैश्विक शांति के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक रहा है।
लेकिन मिशेल बैशलेट को यह सम्मान देना भारत में एक नई बहस को जन्म देता है—क्या यह पुरस्कार वास्तव में शांति और विकास के योगदान पर दिया गया है, या यह राजनीतिक सुविधा का प्रतीक बन गया है?
भारतीय जनता अब पहले से अधिक जागरूक है। देश यह समझता है कि कौन लोग भारत के साथ खड़े हैं और कौन लोग सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए विदेशी आलोचनाओं का सहारा लेते हैं।
कांग्रेस द्वारा बैशलेट को सम्मान दिए जाने से यह संदेश तो साफ मिल ही गया है कि पार्टी अब भी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है जहाँ विदेशी प्रशंसा राजनीतिक पूँजी से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है।
