राजनीति के अपराधिकरण से लेकर अपराधियों के राजनीतिकरण पर बिहार में लंबे समय तक चर्चा जारी रही. इसमें सभी राजनीतिक दलों ने अपने अपने तरीके से भूमिका निभाई. शुरूआत हुई अपराधियों के राजनीतिक नेताओं के इस्तेमाल करने से. आगे जाकर राजनेताओं की कथित गुलामी करने वाले ये अपराधी राजनीति में भी उतरने लगे. लेकिन नीतीश सरकार के कार्यकाल में इसमें बदलाव देखा गया. अपराधी ठेकेदार बनते गयें और उनके गोरखधंधे पर राजनीति ने ऐसी चादर डाली की बस सत्ता के निजाम ने अपने लिए एक नया रास्ता भी निकाल लिया. जिसमें गोरखधंधा तो था लेकिन साथ में सुशासन का चोला भी.
पिछड़ी जाति को दिखाया कुर्सी का सपना
मंडल कमीशन का आंदोलन और पिछड़ों के नेतृत्वकर्ता के तौर पर लालू यादव बिहार में उभरें. इस दौरान उन्होंने लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक भेदभाव झेल रहे जातियों में बंटे बिहार को एक सपना दिखाया. इस बार सपना कुर्सी का था. राजनीतिक कुर्सी का. इस राजनीतिक लड़ाई में उनके साथ रहने वाले नेता पिछड़े समुदाय के अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को समझाते थे और कहते थे कि कुर्सी खिंचना सीखों. मतलब साफ था- अधिकारी के सामने जिस दबंगई से सवर्ण जाति के लोग बैठते थे उसी तरह तुम भी बैठो. कार्यकर्ताओं में उत्साह था. समाज के दबे, कुचले और वैसे वर्ग जिनकी राजनीतिक तौर पर शायद सुनी नहीं जाती थी. उनके सामने एक व्यक्ति हीरो की तरह खड़ा दिख रहा था. सपने दिखाने वाले के हाथ में सत्ता की कमान थी. लालू प्रसाद की सरकार बन चुकी थी. जनता दल के इस नेता ने एक सपना दिखाया और उस सपने को पूरा करने में साथ दिया समाज के उस वर्ग ने जो हमेशा राजनीतिक और सामाजिक तौर पर हाशिये पर रहने की शिकायत करता था.
बैकवर्ड पॉलिटिक्स के एकमात्र क्षत्रप थे लालू
लेकिन धीरे धीरे लालू के शासनकाल के दूसरे दौर में इस वर्ग के लोग उनसे दूर होते गये. लेकिन आज भी समाज का यह वर्ग बार बार लालू प्रसाद के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना नहीं भूलता. राजनीतिक चर्चा और बातचीत के दौरान लालू प्रसाद के बारे में उनकी जाति के अलावा पिछड़ी जाति के लोग यह बात लगातार दोहराते हैं. आगे की राजनीतिक दौर में बिहार में एमवाई समीकरण के आधार पर चुनाव होने लगें. बैकवर्ड पॉलिटिक्स के एकमात्र दावेदार के सामने अन्य क्षत्रप खड़े थे. उसमें नीतीश कुमार का भी नाम सामने आता है. लालू से किनारा करने के बाद समाजवादी धड़े के इन नेताओं ने अपने राजनीतिक सपनों और आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास शुरू किया. राजनीति में समीकरण बदलते गये. नीतीश ने नए समीकरण के साथ राजनीति की शुरुआत की. लालू से किनारा करने के 12 साल के बाद वे बिहार के सीएम बन चुके थे. नीतीश का साथ दिया बीजेपी ने और एक बार तो बिना बहुमत के ही सरकार बनाने में उनकी मदद कर दी. दूसरी बार सरकार बनने नहीं दी गई और तीसरी बार के 2005 नवंबर के चुनाव में नीतीश सरकार बनाने में सफल करे. जंगलराज के खात्मे के नाम पर नीतीश अपनी सभा में साफ तौर पर कहते थे कि गाड़ी से बंदूक दिखाने की इजाजत किसी को नहीं दी जाएगी.
नीतीश ने गढ़े नए समीकरण
सीएम नीतीश कुमार ने सत्ता के नए समीकरण गढ़ना शुरू किया. अति पिछड़ा वर्ग को पंचायत में आरक्षण देने के बाद महादलित समुदाय की अपने पक्ष में गोलबंदी शुरू की. बीजेपी के पीएम उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी के विरोध के दौरान बीजेपी से नाता तोड़ने वाले नीतीश एक बार फिर लालू के साथ खड़े थे. लेकिन आरजेडी के साथ उनका नाता लंबे समय तक नहीं चला और नीतीश ने बीजेपी के साथ फिर से सरकार बना ली.
तेजस्वी ने खोला था नीतीश के खिलाफ मोर्चा
अब बिहार में बढ़ते आपराधिक घटनाओं के आरोप में नीतीश सरकार के खिलाफ तेजस्वी पूरी तरफ मोर्चा खोल चुके हैं. मामला यादवों की हत्या का है. विधानसभा चुनाव पास में है और आरोपी जेडीयू विधायक ब्राहमण जाति से आते हैं. राजनीतिक तौर पर परिपक्व हो चुके तेजस्वी को पता है ये मुद्दा उन्हें यादवों की गोलबंदी में पूरी तरह से मदद करेगा. पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान लालू प्रसाद ने अनंत सिंह को इसी मुद्दे पर घेरकर बिहार में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर सशक्त माने जाने वाले भूमिहार जाति पर लगातार भाषण दिया और यादवों की गोलबंदी पूरी तरह से करने में कामयाब हुए थे.
राजनीतिक लाभ नुकसान के उठाए जाते हैं मुद्दे
लालू राजनीति के शातिर खिलाड़ी रहे हैं और उनके बेटे तेजस्वी को भली भांती पता है कि इसका क्या राजनीतिक लाभ मिल सकता है. लेकिन इतना साफ है कि मुद्दा चुनावी है और राजनीतिक तौर लाभ नुकसान के आधार पर ही इस पर काम हो रहा है.
मंडल कमीशन आंदोलन के बाद लालू दिखे थे फॉर्म में
लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान यह साफ तौर पर दिख रहा था कि लालू प्रसाद ने 90 की दशक के बाद पहली बार इस तरह एग्रैसिव पॉलिटिक्स की हो. जिसमें वो दबंग माने जाने वाले नेता पर लगातार हमले करते रहें. कांग्रेस के समय में राजनीतिक तौर पर सशक्त रहे ब्राह्मण जाति के लोगों की आबादी 6-7 प्रतिशत मानी जाती है. जबकि भूमिहार 2 से 3 प्रतिशत तक हैं. ब्राह्मणों का बिहार के कुछ जिलों में राजनीतिक तौर पर फिलहाल वर्चस्व है. अब देखना है कि ये मुद्दा कितने दिनों तक बना रहता है और इससे किस तरह की राजनीतिक गोलबंदी करने में तेजस्वी और आरजेडी कामयाब हो पाते है. लेकिन इतना साफ है कि बिहार की जातीय राजनीति की आड़ में सभी राजनीतिक दल विकास के सवालों से पूरी तरह बच जाते हैं.
(यह आलेख ब्लॉग के तौर पर खबरचीबंदर न्यूज पोर्टल के मैनेजिंग एडिटर गोविंदा मिश्रा ने 2 जून को लिखा था. ये विचार पूरी तरह निजी हैं. )