चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है
जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है
कंक्रीट के जंगल से प्यार तो हो जाना ही था। 6 बाई बारह के कमरों ने कितने सपनों को बुना और पूरा करते देखा। यही दिल्ली है। आईआईएमसी के लायब्रेरी में जाना हुआ। एक लड़के ने पूछा आप खूश हैं। सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था। खैर जवाब कैसे तलाशते। आप किस बात से नाराज होते हैं औऱ किन बातों से खूश रहते हैं वो आप पर निर्भर करता है क्या। संघर्ष, जीवन में आगे बढ़ने की लालसा और फिर तलाशते रहना जिंदगी की असलियत।
कई साल पहले दोस्त अविनाश के साथ एक बार हौज खास विलेज जाना हुआ। रंगीन जिंदगी देख रहे थे। रास्ते में उसने एक कहानी सुनाई। बिहार से आने वाले मजदूर की। डीटीसी की बस में मेठ (मजदूरों का सरदार) मजदूरों को पूरा शहर दिखाता है। लाल किला और इंडिया गेट के अलावा कुतुब मीनार भी। उसके बाद फिर…………..!
जनाब-ए-‘कैफ़’ ये दिल्ली है ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ की
यहाँ किसी की तरफ़-दारियाँ नहीं चलतीं
यह शहर भूलता बहुत कुछ है। बहुत जल्दी। बहुत तेजी से भागते रहता है। रुकता किसी के लिए नहीं है। यह शहर आपको इंसान से आदमी बनाता है। इंसान से आदमी बनने का सफर थोड़ा लंबा भले ही हो। लेकिन जीवन में आपके जो भी सपनें होंगे वो पूरा भी करा देता है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर ज्यादातर ऑटोवाले बिहार औऱ यूपी के ही मिलेंगे। छपरा, कटिहार और मुजफ्फरपुर के रहने वाले इन ऑटोवालों ने अपने कुछ सपनों को पूरा कर लिया। ज्यादातर ने 25 गज का मकान तो बना ही लिया।
अपने पास इसी तरह के उदाहरण नहीं है केवल। मेरे शहर के मोहल्ले वाले आलोक रंजन, लड्डू और विवेक भईया की कहानियां सुनने को मिल जाएंगी। इसी महानगर में अपनी पहचान और इमारत खड़ी की। बुराड़ी, उत्तम नगर, संत नगर सरीखे इलाके में बिहारियों की पूरी बस्ती मिलेगी। मिथिला के लोग सबसे ज्यादा नजर आएंगे। कारण बाढ़ रहा हो या लालू राज में अपराधियों का आतंक या फिर नौकरी व बेहतर जीवन की तलाश। राजनीतिक शक्ति बढ़ने के साथ ही पूर्वांचली वोटरों की ताकत भी बढ़ी है। इसके साथ ही स्थानीय लोगों के साथ होने वाले तनाव की घटनाएं कम हुई है। नहीं तो कई बार तमाशबीन बन नजारा देखते रहना पड़ता था। दिल्ली में ही बड़े प्रशासनिक ओहदे पर काम करने वाले एक दोस्त से बातचीत हो रही थी। स्वीकार्यता के संदर्भ में। खैर बिहारी शब्द का परिचय बदला जरूर। दो दशक पहले इसी शहर में रहने वाले लोग अपनी पहचान छूपाते थे। लेकिन वो बात भी बीते जमाने की हो गई।
( आलेख केबी न्यूज के संपादक गोविंदा मिश्रा ने लिखा है। करीब 12 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। आईआईएमसी से पढ़ाई पूरी करने के बाद देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम किया है। भाषा, लोक गीत, कला, संगीत और किसान-खेती संबंधित मुद्दों पर लगातार लिखते रहते हैं। फिलहाल दिल्ली में रहते हैं।)