मनोज कुमार मिश्र
लगातार तीन विधानसभा चुनाव अपने एजेंडे पर लाने वाले आम आदमी पार्टी (आआपा) के संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस बार बुरी तरह फंस गए हैं। शराब घोटाले में छह महीने जेल में रहने के बाद 13 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट से सशर्त जमानत मिलने पर बाहर आए केजरीवाल पूरी तरह से चुनावी मोड में आ गए। दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा तो 7 जनवरी को हुई। इस बार विधानसभा के चुनाव 5 फरवरी को होंगे और नतीजे 8 फरवरी को घोषित किए जाएंगे। जेल जाने के समय केजरीवाल इस्तीफा न देने पर अड़ गए और तमाम फजीहत के बाद जेल से बाहर आकर इस्तीफा दिया। अपने स्थान पर आतिशी को मुख्यमंत्री बनाया। वे भी मुख्यमंत्री बनने के साथ ही राजनीतिक नाटक करने लगीं। दूसरी कुर्सी पर बैठी। अपने को केयर टेकर मुख्यमंत्री बताने लगीं।
चुनाव की घोषणा से काफी पहले से ही आआपा ने अपने उम्मीदवार घोषित करने शुरू किए। टिकटों में आम राजनीतिक दलों से भी आगे बढ़कर दलबदल करने वाले नेताओं को प्राथमिकता दी गई। देखा-देखी यही काम कांग्रेस और भाजपा ने किए। वे 12 साल के राजनीतिक जीवन में पहली बार अपनी कट्टर ईमानदार होने के दावे पर धब्बा लगने के बाद चुनाव जीतने के लिए हर तरकीब का सहारा लेने में सबसे आगे हैं। बिजली, पानी, महिलाओं को डीटीसी बसों में फ्री यात्रा करवाने का दावा करने के बाद महिलाओं को 2,100 रुपये हर महीने देने और साठ साल से ज्यादा उम्र के लोगों की फ्री इलाज योजना की घोषणा करने के अलावा विभिन्न धर्म के पुजारियों को वेतन देने से लेकर दिल्ली में जाट जाति को आरक्षण देने की सिफारिश करने आदि घोषणा हर रोज केजरीवाल कर रहे हैं।
विपक्षी दल लगातार उनकी घोषणाओं की खिल्ली उड़ा रहे हैं। पहले केजरीवाल अपने को कट्टर ईमानदार होने के दावे पर आक्रामक प्रचार करते रहे हैं। अपने दल को अन्य दलों से भिन्न बताने का दावा करते रहे हैं। शराब घोटाले में केजरीवाल समेत अनेक बड़े नेताओं के जेल जाने और अपने सरकारी आवास पर बेहिसाब खर्च करने के बाद तो वे अपने लोगों के भी निशाने पर आ गए हैं। अब तो सभी उनके सरकारी सुविधा न लेने के दावे से लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल बनाने के उनके दावे की खिल्ली उड़ाई जा रही है। दिल्ली के इतिहास में संभवतः पहला मामला होगा कि कोई सरकार कैग की रिपोर्ट को विधानसभा में न रखे। पूरी दिल्ली चुनाव प्रचार के रंग में रंग गई है, केजरीवाल और उनकी पार्टी की समस्या है कि वे जितना ही चुनाव प्रचार की दिशा बदलने की कोशिश कर रहे हैं, चुनाव प्रचार उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों पर आ जा रहा है। वे दिल्ली की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर करने का दावा करते हैं और जब नए कालेज, विश्वविद्यालय और अस्पताल की बात की जाती है तो वे और उनके नेता गलत दावे करके विषय को बदलने का प्रयास करते हैं।
सबसे अजीब तर्क तो हर साल दिल्ली का बजट बढ़ाने के दावों के लिए दिया जाता है। शायद उनको और उनके समर्थकों को पता नहीं है कि दिल्ली का बजट शुरू से हर साल केवल बढ़ता ही नहीं रहा है बल्कि वह लगातार खर्च से ज्यादा राजस्व (सरप्लस रेवेन्यू) वाला राज्य रहा है। इसी के चलते उसे 1994-95 में पहली बार पद सृजित करने के अधिकार इस शर्त पर केन्द्र सरकार ने दिए कि राज्य की यह स्थिति बनी रहेगी। शर्त यह थी कि यह अधिकार तभी तक रहेगा जबतक राजस्व गैर योजना मद से ज्यादा इकट्ठा होता रहेगा। उससे पहले दिल्ली की सरकार को चौथी श्रेणी के भी पद सृजित करने के अधिकार नहीं थे। जो हाल दस साल में आआपा की सरकार ने बना दिए हैं कि किसी भी समय यह अधिकार उससे छिन सकता है।
पहले तो उन्होंने विक्टिम कार्ड चलने का प्रयास किया। 2024 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली में इसी को मुद्दा बना कर केजरीवाल ने चुनाव प्रचार किया। उन्हें अप्रत्याशित ढंग से सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव प्रचार करने के लिए 13 मई को तीन हफ्ते की जमानत दी थी। वे और उनकी पार्टी उनको झूठे मामले में फंसाने का आरोप लगाते रहे। लोकसभा चुनाव में और भी मुद्दे थे लेकिन आआपा के लिए तो वही मुद्दा बड़ा था। वह दिल्ली में लोकसभा चुनाव कांग्रेस से सीटों का तालमेल करके लड़ी। बावजूद इसके भाजपा ने लगातार तीसरी बार दिल्ली की सभी सातों सीटें जीत लीं। आआपा चार और कांग्रेस तीन सीटों पर चुनाव लड़ी। कांग्रेस के वोट औसत में बढ़ोतरी हुई। शायद इससे ही आआपा डरी और इस विधानसभा चुनाव में समझौता नहीं किया। आआपा को तीन सीटें पंजाब में मिली, जहां आआपा अकेले चुनाव लड़ी। आआपा के इस 12 साल के राजनीति कार्यकाल में अनेक नेताओं पर आरोप लगे। कुछ को केजरीवाल ने ही विदा किया और कुछ को कानूनी तरीके से आरोप लगने के बाद विदा किया गया।
दिल्ली में दो विधानसभा चुनावों से सीधा समीकरण है कि कांग्रेस के मुख्य मुकाबले से बाहर होते ही आआपा की एकतरफा जीत होती है। माना जाता है कि अल्पसंख्यक उस दल को वोट करते हैं जो भाजपा को हराए। 2013 के विधानसभा चुनाव में माना गया कि अल्पसंख्यक भ्रम में रहे इसलिए कांग्रेस को आठ सीटें और 24.50 फीसदी वोट मिले। 2015 और 2020 में कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली और उसका वोट घट कर क्रमश 9.7 और 426 फीसदी हो गए। आआपा का प्रचार यही है कि कांग्रेस को वोट देना वोट खराब करना है। 2022 के नगर निगम चुनाव में कांग्रेस को जिन नौ सीटों में सफलता मिली उनमें सात सीटें अल्पसंख्यक बहुल थे। इतना ही नहीं मुस्तफाबाद से जीते दोनों कांग्रेस पार्षदों के आआपा में शामिल होने के खिलाफ अल्पसंख्यकों ने सारी रात आंदोलन चलाया कि पहले वे निगम पार्षद से इस्तीफा दें फिर आआपा में शामिल हों। उन दोनों को और उनसे दलबदल कराने वाले नेता को वापस कांग्रेस में लौटना पड़ा। इस बार कांग्रेस की तैयारी अल्पसंख्यक वोटों को अपने पक्ष में लाने की ज्यादा है। आआपा का संकट इससे भी ज्यादा है। केवल अल्पसंख्यक आआपा के बदले कांग्रेस के साथ हो गए तो आआपा का फिर से दिल्ली जीतने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा।
अब तो यह सार्वजनिक हो गया है कि जिस आम आदमी पार्टी को कांग्रेस ने भाजपा के मध्यम वर्गीय लोगों का समर्थन लेकर उसको कमजोर करने के लिए तन-मन और धन से सहयोग किया था, उसी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थक माने जाने वाले कमजोर वर्गों, अल्पसंख्यक और पूर्वांचल के प्रवासियों को अपना स्थाई वोटर बना कांग्रेस इस चुनाव में इस वर्ग को अपने साथ लाने के प्रयास में लगी हुई है। कट्टर धार्मिक छवि वाले उत्तराखंड के मंगलोर के विधायक काजी निजामुद्दीन दिल्ली के प्रभारी, राजस्थान के पूर्व विधायक दानिश अबरार सह प्रभारी और टिकटों की छानबीन समिति में पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन के साथ सहारनपुर के सांसद इमरान मसूद हैं।
दिल्ली में मुस्लिम आबादी अब 12 से बढ़कर अब 15 फीसद से ज्यादा हो गई है। 70 में से 17 सीटें ऐसा हैं जहां मुस्लिम मतदाता 20 फीसद से ज्यादा हैं। इनमें सीलमपुर, मटिया महल, बल्लीमरान, ओखला, मुस्तफाबाद, किराड़ी, चांदनी चौक, गांधीनगर, करावल नगर, विकास पुरी, ग्रेटर कैलाश, कस्तूरबा नगर, बाबरपुर, मोतीनगर, मालवीय नगर, सीमापुरी और छतरपुर शामिल हैं। इसी तरह 12 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर भी कांग्रेस ने पूरी तैयारी की है। दलितों में कांग्रेस का कुछ असर अब भी बचा है। पूर्वांचल के प्रवासी दिल्ली में सालों कांग्रेस का साथ देकर उसे सत्ता दिलाते रहे। दिल्ली के 70 में से 42 सीटों पर पूरबियों (पूर्वाचंल के प्रवासी) का वोट 20 फीसद से ज्यादा है। यह तीनों और दिल्ली के गांव का एक वर्ग अगर कांग्रेस से जुड़ जाए तो उसके पुराने दिन लौट आ जाएंगे। कांग्रेस नेता इसी अभियान में लगे हैं। अगर इस बार उनके वोट औसत में बढ़ोतरी नहीं हुई तो कांग्रेस का दिल्ली से वजूद भी खत्म हो जाएगा। आआपा की छटपटाहट इसी बात की है कि भाजपा उसका पोल खोल चुकी है और कांग्रेस अपने बिखरे लोगों को समेटने में लगी है।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।)