
डिजिटल टीम, नई दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू अध्ययन केन्द्र में दिनांक 08 मार्च 2025 को हिंदू अध्ययन केंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय, भारतीय इतिहास संकलन योजना समिति, दिल्ली, रामानुजन कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय), एवं भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद (दिल्ली) के संयुक्त तत्वावधान में “भारतीय विमर्श में नारी” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का आरंभ वाग्देवी, वाग्धारा, वागमाता सरस्वती के पूजन और गणेश वंदना से किया गया। इस कार्यक्रम में 200 से अधिक प्रतिभागी उपस्थित रहे और लगभग 80 प्रतिभागियों ने अपने शोध कार्य प्रस्तुत किए ।
भारतीय विमर्श में नारी की गहरी समझ विकसित करने के उद्देश्य से इस संगोष्ठी में आठ समानांतर तकनीकी सत्रों का आयोजन किया गया, जिनमें लगभग 80 शोध पत्रों का प्रस्तुतीकरण हुआ। प्रस्तुत शोध पत्रों में “वैदिक वाङ्मय में स्त्री,” “भारतीय संविधान सभ्यता एवं स्त्री”, तथा “पाश्चात्य बनाम भारतीय दृष्टि से स्त्री” जैसे विषय प्रमुख रहे।
इस कार्यक्रम में कई गणमान्य अतिथियों की उपस्थिति रही, जिनमें मुख्य अतिथि प्रो. बलराम पाणि (डीन ऑफ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय), मुख्य वक्ता डॉ. बालमुकुंद पांडेय, (संगठन सचिव, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना), विशिष्ट अतिथि प्रो. रसाल सिंह (प्रधानाचार्य, रामानुजन कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय) और प्रो. सुष्मिता पांडेय (महिला प्रमुख, भारतीय इतिहास संकलन) शामिल थे।
मुख्य अतिथि प्रो. बलराम पाणि ने अपने संबोधन में भारतीय विमर्श में निहित गहरी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मान्यताओं पर प्रकाश डाला, जहां मातृभूमि को सर्वोच्च सम्मान प्राप्त है। उन्होंने यह रेखांकित किया कि प्रकृति स्वयं मातृत्व का प्रतीक मानी जाती है, जिसे हम “मदर नेचर” कहते हैं, जो संपूर्ण सृष्टि को जीवन देने वाली शक्ति का प्रतीक है। उन्होंने आगे बताया कि वृक्ष और पत्ते भी इस पवित्र संबंध का प्रतिनिधित्व करते हैं।
शक्ति की अवधारणा पर चर्चा करते हुए उन्होंने इसे सृजन और परिवर्तन की मौलिक ब्रह्मांडीय ऊर्जा बताया। उन्होंने यह भी कहा कि नारी में समाज को बदलने की शक्ति निहित है, क्योंकि वह स्वभावतः कल्याणकारी और लोकमंगलकारी होती है।
डॉ प्रेरणा मल्होत्रा (सह निदेशक व कार्यक्रम संयोजिका, हिंदू अध्ययन केंद्र, दिल्ली विश्वविद्यालय) ने बताया कि पाश्चात्य दर्शन में स्त्रियों को ही पापियों की नज़र से देखा। उन्होंने स्त्रियों को ही पाप का स्रोत बताया। यहां तक की प्लेटो और अरस्तू जैसे दार्शनिकों ने भी स्त्रियों को केवल एक दासी के रूप में देखा। अमेरिका और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में स्त्रियों ने अपने अधिकारों के लिए कड़ी लड़ाई लड़ी तब जाकर उन्हें कुछ हद तक पुरुषों के समकक्ष स्थान मिला। उन्होंने बताया की 2022 में अमेरिका के रो वर्सेस वेड केस मैं संशोधन करके नारियों के स्वयं पर अधिकार को भी आक्षेपित कर दिया गया। यह उस मानसिकता को दर्शाता है जो यह कहती है कि जिन्हें मरना है वह मर जाए पर हम अधिकार नहीं देंगे। उन्होंने महिलाओं को मनुष्यों की श्रेणी में समझा ही नहीं और और इसी कारणवश मानवाधिकार का हनन सतत होता रहा। संपूर्ण विश्व को मानवाधिकार का सूत्र भारत ने ही दिया। उन्होंने बताया कि कैसे भारतीय सभ्यता में उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ने स्वयं को दो भागों में विभक्त कर स्त्री और पुरुष की रचना की और उनमें किसी भी तरह का भेद नहीं रखा ठीक उसी प्रकार से जैसे चने के दो दल। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज में ना तो पितृसत्ता थी और ना ही स्त्रियां किसी के अधीन थी। भारतीय समाज में वेद, वेदांग, गीता, उपनिषद, पुराण आदि में स्त्रियों को समान रूप से धर्म का अधिकारी समझा है। महोदया ने बताया की कैसे अर्धनारीश्वर जैसे स्थापित मतों के द्वारा भारतीय समाज प्राचीन काल से ही एक उन्नत समाज के रूप में स्थापित था।
प्रो. बालमुकुंद पांडेय, (संगठन सचिव, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना), ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब पश्चात विदेशी ज्ञान का अंधेरा छटेगा तभी हमें वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति होगी । और वास्तविक ज्ञान तत्व की प्राप्ति के पश्चात ही स्त्री सीता के रूप में स्थापित हो सकेगी। उन्होंने बताया कि कैसे भारतीय दर्शन में जो भी दृष्ट होता है वही ज्ञान का आधार बनता है और इसीलिए इसे दर्शन कहा जाता है। महोदय जी ने स्त्री की महत्ता को दर्शाते हुए यह कहा कि भारतीय सभ्यता में डूबते हुए सूरज को देखकर छठी मैया का पर्व मनाया जाता है और जब जब मनुष्यों में श्रद्धा का भाव प्रगाढ़ रूप से प्रकट होता है तब एक ही शब्द निकलता है और वह है मां। श्रीमान जी ने स्त्री के विभिन्न रूपों को प्रदर्शित करते हुए यह कहा की मां जीवन का उदय करती है, भगिनी भाग्य का निर्माण करती है, पुत्री पिता को पवित्र बनाती है और पत्नी पति को पतन से बचाती है। भारतीय सभ्यता में नारियों को सशक्तिकरण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आठवें दिन वह महाकाली है और नवें दिन वह महागौरी के रूप में विद्यमान होती है। उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता में नारी कभी भी अबला नहीं थी उन्होंने सदा ही धर्म का आश्रय लेकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है और इसके फल स्वरुप ही उन्होंने युद्ध भूमि में भी अपना पराक्रम दिखाया और जौहर धारण करके मृत्यु को प्राप्त करने में भी उन्होंने तनिक भी संकोच नहीं किया। अपने वक्तव्य को पूर्ण करते हुए उन्होंने यह बताया की भारतीयता में मुख्य विषय है मनुष्य होना और इस देश की पहचान ताज से नहीं त्याग से है।
