एक छोटी सी यात्रा पर निकला था। मेरे शहर के अधेड़ उम्र के पढ़े लिखे ड्राइवर साथ में थे। उन्होंने पूछा कि क्या लड़के लड़कियां बिना शादी के बड़े शहरों में साथ में रहते हैं। ग्रामीण परिवेश वाले इस शख्स के लिए यह सुनना संस्कार को गौण करने वाली बात जैसी थी। डिजिटल यूग में हर तरह के कंटेंट आपके पास रहते हैं। कोई भी सूचना आपसे दूर नहीं रह सकती। तो क्या कामसूत्र वाले देश में सेक्स पर बात करना ताबू की तरह है? ऐसा मुझे नहीं लगता। मेरी एक पत्रकार मित्र हमेशा अपने परिवार के लोगों के बारे में शिकायत करती थी। उनपर पैनी नजर रखी जाती है। कहां जा रही हैं और किससे मिल रही हैं। हम भारतीय पश्चिम की नकल करते हैं लेकिन उनकी तरह नहीं बन सकते। उनके सामाजिक परिवेश में जो स्वीकार्यता नहीं है वो हमारे यहां उसी परिस्थिति में कैसे सही मान लिया जाए।
सामाजिक नियम जिसे लोकाचार कहते हैं वो समय, परिस्थिति और काल के अनुसार बदलते भी है। आज लव मैरेज जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए तो विवाह संबंध में समझदार माता पिता लड़का और लड़की दोनों से सहमति ले लेते हैं। आलेख का उद्देश्य पर आते हैं कामसूत्र वाले देश में सेक्स पर बात करना ताबू नहीं है। लेकिन क्या यह जरूरी है? क्या यह जरूरी है कि हर बातों को सार्वजनिक तरीके से समाज के सामने रखा जाए। सामाजिक स्वीकार्यता के लिए जरूरी है कि पहले किसी भी मुद्दे को लोगों तक लगातार पहुंचा जाए। एक समय के बाद उसे सरलता से अपना लिया जाएगा। इस तरह के प्रयास से समाज को किस रास्ते पर ले जाया जाएगा यह विचारणीय विषय है। फेसबुक और यूट्यूब पर डॉक्टर, कंटेंट क्रिएटर लगातार इसपर बातें कर रहे हैं। लेकिन मोबाइल के दौर में इस तरह के कंटेंट की पहुंच हर उम्र वर्ग तक हो जा रही है। छोटे बच्चों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जिन बातों को उनके उम्र में परिवार के लोग शेयर करने से परहेज करते हैं किशोरावस्था के बाद उनको इसकी जानकारी दी जाती है। कम से कम घर की महिलाओं की आपस में हर मुद्दे पर बात होती है। भारत में एक दौर ऐसा आया कि लोग परिवार को बढ़ाने की बातों से दूर होने लगे तब मंदिरों में इसका चित्रण किया गया। ताकि समाज आगे बढ़ते रहे। इस अपसंस्कृति से सामाजिक ताना बाना और ढ़ांचा धवस्त हो रहा है।
(लेखक गोविंदा मिश्रा केबी न्यूज के फाउंडर एडिटर हैं। उनके ये व्यक्तिगत विचार हैं।)