फिर फेरे हम तेरे………..?
लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली दो महिला मित्रों से पिछले 15 दिनों में बात हुई। दोनों का ब्रेकअप हो गया था। मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली परिचित अपनी समस्या बता रही थी। मैं प्रवचन नहीं देता हूं। सिर्फ सुना और दो शब्द में अपनी बात खत्म की। भारतीय समाज के दो पक्ष मुझे नजर आते हैं। पहला इन बातों को किसी भी हालत में नहीं स्वीकार्यता है। दूसरा स्वीकार्यता की बात कहता है। लेकिन अपनी ग्रामीण या अर्धशहरी परिवेश-जड़ों से पूरी तरह नाता तोड़ नहीं पाता। लेदेकर पश्चिम की नकल करने के बावजूद वो एक बेहतर वैवाहिक जीवन को आगे ले जाना चाहता है। कम से कम मैं ऐसा मानता हूं।
सामाजिक नियम परिस्थियों, काल और समय के अनुसार बदलते हैं। जो नियम जिस काल में बने हो उसी प्रासंगिकता खत्म होने के बाद वो बदल जाते हैं। प्रेम, आकर्षण, सम्मान वैवाहिक जीवन के मजबूत पहलू होते हैं। व्याभिचार की स्वीकार्यता आज भी भारतीय समाज नहीं करता। भले ही वो पश्चिमी प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़कर बड़ी बड़ी बातें करे लेकिन असल में वो ढोंग ही करता है। मेरी महिला मित्र शादी करने का दबाव दे रही थी। लेकिन उनका साथी कही और शादी करना चाह रहा था। खैर ब्रेकअप के बाद की मनोदशा की जिम्मेवार वो खुद थी।
दूसरी महिला मित्र की स्थिति पूरी तरह अलग थी। उनके जीवन में कई लोग थे। जिनका उनसे अंतरंग संबंध था। जीवन में हर तरह के पड़ाव होते हैं। शायद नियति ने उन्हें इससे कुछ बेहतर सीख दी होगी। प्रेम आदर्शवादी स्वरुप से आगे बढ़कर वर्तमान भौतिक आवरण में बदला हुआ दिखता है। इसमें सिर्फ करियर की बेहतरी के लिए अवसर तलाशते हुए साथी की खोज होती है। स्वार्थ की दृष्टि इसको पूरी तरह बदल देती है।
मेरे कई मित्र लिव इन रिलेशनशिप में रहे और बाद में शादियां भी की। लेकिन सहजता से उन्हें यह समाज के सामने स्वीकारने की हिम्मत नही थी। इससे साफ समझ में आता है कि भारतीय संस्कार को गौण कर आगे बढ़ने की बात जरूर करते हैं। लेकिन इसमें उनका ढोंग छूपा रहता है।